जब शत्रु दशानन, दुर्योधन जैसा तो यह अनिवार्य…

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@डॉ.आशीष द्विवेदी की कलम से…

नमस्कार,
आज बात युद्ध की …
जब शत्रु दशानन, दुर्योधन जैसा तो यह अनिवार्य
भारतीय संस्कृति चिरकाल से तप, त्याग, दया, करुणा, क्षमा ,धैर्य और प्रेम की संस्कृति रही है। आदिदेव शिव को करुणावतारं तो प्रभु श्रीराम को करुणानिधान कहा जाता है। भगवान बुद्ध और महावीर की भी तो यही धरती है। जहां अंतिम समय तक युद्ध को टालने के प्रयास किए जाते रहे हैं। इसे अंतिम विकल्प के रूप में ही देखा जाता है। रामायण के प्रसंग से भला कौन अनभिज्ञ होगा। कि जब दशानन ने माता जानकी का अपहरण कर लिया तब राघव ने उसे कितने अवसर दिए।
हनुमान जी, अंगद से शांति प्रस्ताव भिजवाया ताकि युद्ध टाला जा सके। किंतु उसने इसे प्रभु की दुर्बलता से जोड़ लिया। इसी तरह महाभारत में भी माधव ने युद्ध टालने का पूर्ण प्रयास किया। वह तो स्वयं दूत तक बनकर कौरव सभा में चले गए। सभी तरह के समझौते करने भी तैयार थे किंतु वहां दुर्योधन ने उनकी एक न सुनी। उल्टे हरि को बांधने चला। दरअसल भारतीय संस्कृति कभी आक्रांता की संस्कृति कभी रही नहीं।
किंतु दिक्कत तब खड़ी हो जाती है जब कोई आपके ही घर में घुसकर आपको बेघर करने लगे। नाहक ही आपके गिरेबान को पकड़ने का प्रयास करे। आपकी सहृदयता को अन्यथा लेने लगे। कोई करगिल में घुस आए, कोई कश्मीर में शिखंडी युद्ध करे, कोई डोकलाम में सीनाजोरी करे तब भी क्या आप शांति के कबूतर ही उड़ाते रहेंगे? कदापि नहीं। जब शत्रु आपकी देहरी पर खड़ा होकर ललकारे तब शमशीर उठना अवश्यंभावी हो जाता है। युद्ध अनिवार्य हो जाता है। यह सभी जानते हैं कि युद्ध का हासिल क्या है? इसके बावजूद आताताईयों को सबक सिखाने शस्त्र उठाने ही होता। जब धर्म की हानि होती है तब युद्ध अनिवार्य है। तभी तो हमारे लगभग सभी देवी- देवता अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित हैं।
सूत्र यह है कि अनेक बार शांति का मार्ग भी युद्ध से होकर ही जाता है। सभी युद्ध तो नहीं किंतु कुछ युद्ध मानवता की रक्षा हेतु भी लड़ने होते हैं।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यूं ही नहीं कहा-
यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्
हे भारत, जब-जब धर्म का लोप होता है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म के अभ्युत्थान के लिए स्वयम् की रचना करता हूं अर्थात अवतार लेता हूं।
शुभ मंगल
# शांति सूत्र
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