देवभूमि के कण-कण में शिव
सावन से जितना गहरा नाता शिव का है, उतना ही शिव से देवभूमि उत्तराखंड़ का भी है। यहां पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक कण-कण में शिवत्व के दर्शन होते है। यहीं कैलाश में शिव का वास है तो धर्मनगरी हरिद्वार के कनखल में ससुराल। माता सती कनखल में ही राजा दक्ष और रानी प्रसूति के घर जन्मी थी। बारह ज्योतिर्लिंग में से एक केदारनाथ और शिव- पार्वती विवाह स्थल त्रियुगीनारायण भी यहीं पर रुद्रप्रयाग में हैं।
वहीं अल्मोड़ा के जागेश्वर धाम में शिव साक्षात विराजगान है। चमोली में गोपीनाथ मंदिर हो या पौड़ी में नीलकंठ महादेव व ताड़केश्वर धाम, बागेश्वर में बैजनाथ धाम उच्च हिमालय में स्थित द्वितीय केदार मध्यमेश्वर, तृतीय केदार तुंगनाथ, चतुर्थ केदार रुद्रनाथ और पंचम केदार कल्पेश्वर, सभी शिव का ही रूप है। देहरादून जिले के जनजातीय दोष जौनसार-बावर में न्याय के देवता माने जाने वाले महासू भी शिव का ही रूप हैं।स्थागीय बोली -भाषा में महासू शब्द महाशिव का अपभ्रंश है। देहरादून में भी भोलेनाथ को समर्पित कई प्राचीन मदिर है। सावन के इस माह में आज हम आपको इन्हीं शिवालयों के माहात्म्य व इतिहास से परिचित करा रहे हैं।
द्रोण गुफा शिव मंदिर
देहरादून के गढ़ी कैट क्षेत्र में तमसा नदी के तट पर स्थित यह मंदिर द्वापर युग का माना जाता है। स्कंद पुराण के केदारखंड मे भी इस मंदिर का वर्णन है। पुराणों के अनुसार यहां द्रोणाचार्य के तप सै प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए थे और उनके अनुरोध पर जगत कल्याण के लिए लिंग रूप मे स्थापित हो गए। यहीं पर द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा का भी जन्म हुआ।
यह मंदिर एक प्राकृतिक गुफा में है, जो ‘द्रोण गुफा’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।
मान्यता है कि अश्वत्यामा ने मंदिर की गुफा में छह माह तक एक पांव पर खड़े होकर भगवान शिव की तपस्या की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान प्रकट हुए तो अश्वत्थामा ने उनसे दूध मांगा। इस पर प्रभु ने शिवलिंग के ऊपर स्थित चट्टान में गौ थन बना दिए और दूध की धारा बहने लगी। कालांतर में दूध की घारा जल में परिवर्तित हो गई, जो आज भी निरंतर शिवलिंग पर गिर रही है। इसी कारण इस स्थान का नाम टपकेश्वर पड़ा। देश ही नहीं, विदेश से भी शिव भक्त यहां भगवान के दर्शन को आते हैं। सावन में यहां पूरे महीने मेले जैसा माहौल रहता है। इस दौरान दर्शन के लिए लबी लाइन लगानी पड़ती है! यह मंदिर घंटाघर से तकरीबन 5 और आईएसबीटी से 7 किमी की दूरी पर है।
बावड़ी शिव मंदिर
यह मंदिर घंटाघर से करीब 12 किमी दूर राजपुर रोड पर स्थित जो प्राचीनतम शिव मंदिरों में से एक है। मान्यता है कि पूर्व मे इस मंदिर के आसपास छोटे – बड़े 108 शिवलिंग मौजूद थे, लेकिन अब अधिकतर ढक गए हैं। वर्ष 1890 में देहरादून प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानंद भी इस मंदिर में आए थे और यह की दिव्यता से इतने प्रभावित हुए कि तीन सप्ताह तक यहीं रुके रहे। वह यहां अपने गुरु भाई स्वामी तुरीयानंद से मिलने आए थे। मंदिर परिसर में जिस जगह स्वामी विवेकानद अपने गुरु भाई से मिले, वहां स्मृति के रूप में कुटिया बनी हुई है और कुछ प्राचीन मु्र्तियां भी हैं। मंदिर के चारों तरफ बावड़ियों और झरनों का जाल है,लेकिन देखरेख नही होने से अधिकांश बंद हो गई है तो कुछ में पानी आना बंद हो गया है । इन्हीं बावड़ियों के कारण मंदिर का नाम बावड़ी शिव मंदिर पड़ा।
पृथ्वीनाथ महादेव मंदिर...
सहारनपुर चौक स्थित पृथ्वीनाथ महादेव मंदिर सनातन धर्मावलबियों की आस्था का केंद्र है। सावन में यहां महादेव का तरह-तरह से विशेष श्रृंगार किया जाता है। इस दौरान यहां जलाभिषेक करने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं। मान्यता के अनुसार, यह मंदिर महाभारत काल से भी पहले का है, स्कंद पुराण के केदारखड में बताया गया है कि वैश्व वर्णोत्पनन वामन नामक सन्यासी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव स्वयं यहा प्रकट हुए थे। तभी से यहां पर महादेव की पूजा-अर्चना होती आ रही है। बताया जाता है कि गुरु द्रोणाचार्य ने इस मंदिर में भी तप किया था। यह मंदिर घंटाघर से करीब 3 किमी और रेलवे स्टेशन से आधा किमी की दूरी पर है। मंदिर का संचालन श्री पंचायती अखाड़ा महानिर्वाणी के नागा सन्यासी करते हैं। नासिक स्थित ज्योतिर्लिंग त्र्यम्बकेश्वर मंदिर की तरह यहां भी ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों विराजित हैं। इसमें दो स्वरूप लिंग व पिंडी रूप में, जबकि एक स्वरूप आलोप है। जो हमेशा पानी से भरा रहता है। मंदिर परिसर में करीब 200 वर्ष पुराना बेल का पेड़ है, जिसमें वर्षभर फल आते हैं।
कंठ में धारण किया था हलाहल- समुद्र मंचन के दैरान ‘ हलाहल” नामक विध निकला था, जिबसे सृष्टि में हाहाकार मच गया । तब शिव ने इसे कंठ में धारण कर सृष्टि की रक्षा की, लेकिन विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया। मान्यता है कि सावन में देवताओं ने विष के असर को कम करने के लिए शिव का ज़लाभिषेक किया, तभी से इस महीने में विशैषतौर पर शिव के जलाभिषेक की परंपरा चली आ रही है। सावन को जलकर यह भी माना जाता है कि माता पार्वती ने इसी महीने में भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए तपस्या की थी, इसलिए भी भगवान शिव को यह माह अत्यंत प्रिय है।
चंद्रबदनी मंदिर…
देहरादून- दिल्ली हाइवे पर घंटाघर से लगभग 11 किमी दूर चंद्रबनी मंदिर स्थित है। शिवालिक पहाड़ियों के बीच चारों ओर हरियाली से घिरा यह मंदिर भी अपने पौराणिक महत्व के लिए जाना जाता है। यहा का शांत वातावरण मन को सृकून देता है। मान्यताओं के अनुसार, यहां चंद्रमा नित्य निवास करते हैं और यही वो स्थान है, जहां चंद्रमा ने शिव के मस्तक पर निवास प्राप्त किया। इसलिए यह मंदिर चंद्रेश्वर नाम से भी जाना जाता है। एक अन्य किंवंदती के अनुसार भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरड़ की उत्पत्ति यहीं पर हुई थी। ब्रह्म के पुत्र दक्ष प्रजापति ने प्रजा की वृद्धि के लिए यहां देवताओं के साथ यज्ञ किया था। इसमें ब्राह्मणों को भी आमंत्रित किया गया था।इस दौरान देवताओं के राजा इंद्र ने बालखिल्य ऋषियों के अंगूठे के बराबर शरीर को देखकर हंसी उड़ा दी। इससे रुष्ट होकर ऋषियों ने दूसरे इंद्र की रचना के लिए यज्ञ शुरु कर दिया। जिसके बाद इ्ंद्र ने यज्ञ रोकने के लिए ब्रह्मा की शरण ली। ब्रह्मा ऋषियों के पास पहुंचे और उनके क्रोध को शांत किया। जिसके बाद ऋषियों के प्रताप से यज्ञ से पक्षीराज गरुड़ उत्पन हुए।
मान्यता यह भी है कि सतयुग में ऋषि गौतम पत्नी अहिल्या और बेटी अंजनी के साथ यहां रहते थे। ऋषि गौतम ने वर्षों तक यहां ध्यान किया। माना जाता है कि यहां एक कुंड में महर्षि गौतम के आह्वान पर देवी गंगा अवतरित हुई थीं। इस कुंड को गौतम कुंड नाम से जाना जाता है। भक्त इस व मैं डुबकी भी लगाते हैं। यह मंदिर हनुमानजी की माता देवी अंजना का घर भी माना जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने यहीं हनुमान जी को जन्म दिया था।