ऋषि-महर्षियों के अनुसार, मां का चौथा विग्रह स्वरुप कृष्मांडा का है। नवरात्र के चौथे दिन भक्त उनके इसी रूप की पूजा करते हैं। मंद और हल्की-सी मुस्कान मात्र से अंड को उत्पन्न करने वाली होने के कारण ही उनके इस रूप को कृष्मांडा कहा गया है।
जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अंधकार ही अंधकार था, तब मां ने महाशून्य में मंद हास से उजाला करते हुए ‘अंड’ की उत्पत्ति की, जो बीज रुप में ब्रह्म तत्व के मिलने से ब्रह्मांड बना और यही उनका अजन्मा व आध्रशक्ति का रुप है। जीवों में उनका स्थान ‘अनाहत चक्र’ में माना गया है।
नवरात्र के चौथे दिन योगीजन इसी चक्र में ध्यान लगाते हैं। कृष्मांडा मां का निवास स्थान सूर्य लोक में है, क्योंकि उस लोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल उनमें ही है।
उनके स्वरूप की कांति और तेज मंडल भी सूर्य के समान ही अतुलनीय है। मां का तेज ओर प्रकाश दसों दिशाओं में ओर ब्रह्मांड के चराचर में व्याप्त है। मां अष्टभुजा लिए हुए हैं, उनके सात हाथों में क्रमश: कमंडल, धनुष, बाण, कमल का फूल, अमृत कलश, चक्र तथा गदा है और आठवें हाथ में सर्वीसिद्धि और सर्वनिधि देने वाली जप माला। मां का वाहन बाघ है। संस्कृत में कृष्मांड ‘कूम्हडा’ अर्थात पेठा या सीताफल को कहा जाता है।
ऐसे करें मां कूष्माडा प्रसन्न :
नवरात्र के चाँथे दिन मां के इस स्वरूप के समक्ष मालपुए का भोग लगाना चाहिए, तत्पश्चात इस प्रसाद को दान करें और स्वयं भी ग्रहण करें। ऐसा करने से भक्तों की बुद्धि का विकास होने के साथ ही उनके निर्णय लेने की क्षमता भी अच्छी होती है।