आत्मा की स्वतंत्रता सबसे अहम…

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@डॉ.आशीष द्विवेदी की कलम से…

नमस्कार,

आज बात कवि की….

कविता का अपना चरित्र रहा है। भारतीय राजतंत्र में दरबारी कवियों की प्रथा से हम सभी परिचित हैं । भाट – चारण परंपरा भी। कवि अपने राजा को जाने कितनी उपमाओं और विशेषणों से अलंकृत करते। अतिशयोक्ति अलंकार ! कवियों का अपना मान – सम्मान भी रहा है। हमारे बुंदेलखंड के प्रतापी शासक महाराजा छत्रसाल ने तो कवि भूषण की पालकी को तक उठाया है।
एक प्रसंग ऐसा भी है जब एक बार शिवाजी महाराज का मन जरा डांवाडोल हुआ तो वह वैराग्य का मन बनाने लगे तभी संत तुकाराम जो उनके गुरु भी थे और कवि भी उन्होंने चेताया कि राजन – जिस दिन तुम्हारी खड़ग ( तलवार ) चलना बंद हो जाएगी मैं खड़ताल ( शौर्य गाथा) भी बंद कर दूंगा। ऐसे निर्भीक कवि भी होते थे एकदम सचेतक की तरह। अब कवियों की गरिमा कितनी शेष है ? यह यक्ष प्रश्न है।
एक पुराने अखबार की क्लीपिंग में कवि दादा भवानी प्रसाद मिश्र का एक बड़ा रोचक सा किस्सा पढ़ने मिला। हुआ यूं कि आपातकाल के समय वे प्रतिदिन ‘ त्रिकाल संध्या ‘ के नाम से तीन कविताएं लिखते थे। जो सीधे सरकार पर कटाक्ष करने वाली होती। एक कविता में तो उन्होंने तत्कालीन शासकों को बकायदा ‘ कौआ ‘ कहकर संबोधित भी किया। एक समय उन्हें हृदय में असहनीय दर्द उठा।
डाॅक्टरों ने पेसमेकर लगवाने की सलाह दी। इतना पैसा तो कवियों के पास होता नहीं था कि इस उपचार का खर्च वहन कर सकें। एक नेता ने उन तक प्रस्ताव भेजा कि यदि वे तैयार हो जाएं तो सरकार अपने खर्चे पर पेसमेकर लगवा सकती है। जब यह बात भवानी दादा तक पहुंची तो उन्होंने अपने अंदाज में कहा कि कवि के सीने में सरकारी दिल नहीं धड़क सकता। इस प्रसंग में हमें कवि के स्वाभिमान के दर्शन होते हैं।
सूत्र यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है इसलिए अपनी इस शक्ति का सदुपयोग करना हम सभी की जिम्मेदारी है।
शुभ मंगल
#कवि सूत्र
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