पाकिस्तान को देता सहायता और भारत पर प्रतिबंध ! अमेरिका का दोहरा चरित्र
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नई दिल्ली। अमेरिका की विदेश नीति हमेशा से एक पहेली रही है। एक ओर वह अपने मित्र राष्ट्रों की मदद का दावा करता है, तो दूसरी ओर अपने हितों के लिए वह किसी भी देश को नजरअंदाज करने से नहीं हिचकता। हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर जेलेंस्की के बीच व्हाइट हाउस में हुआ तीखा विवाद इस बात का ताजा उदाहरण है। लेकिन यह कहानी सिर्फ यूक्रेन और अमेरिका तक सीमित नहीं है। भारत और पाकिस्तान के साथ अमेरिका के बदलते रिश्तों को देखें, तो यह साफ हो जाता है कि अमेरिका की दोस्ती सिर्फ उसके अपने हितों पर टिकी है।
ट्रंप-जेलेंस्की विवाद: एक नया मोड़
28 फरवरी 2025 को व्हाइट हाउस के ओवल ऑफिस में ट्रंप और जेलेंस्की के बीच हुई मुलाकात ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा। यह मुलाकात यूक्रेन के खनिज संसाधनों को लेकर एक समझौते पर हस्ताक्षर के लिए थी। ट्रंप इस डील को अमेरिकी करदाताओं के पैसे की “वापसी” के रूप में देखते हैं। लेकिन बातचीत जल्द ही तीखी बहस में बदल गई। ट्रंप और उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस ने जेलेंस्की पर अमेरिकी सहायता के लिए “कृतज्ञता” न दिखाने का आरोप लगाया। ट्रंप ने कहा, “आपके पास कार्ड्स नहीं हैं,” और जेलेंस्की से रूस के साथ शांति समझौता करने की मांग की। जवाब में, जेलेंस्की ने व्लादिमीर पुतिन पर भरोसा न करने की बात कही और यूक्रेन की सुरक्षा की गारंटी मांगी।
इस विवाद ने अमेरिकी विदेश नीति के उस चेहरे को उजागर किया, जो अपने सहयोगियों से अपेक्षा करता है कि वे अमेरिकी हितों के आगे झुकें। ट्रंप ने बाद में सोशल मीडिया पर लिखा, “जेलेंस्की ने अमेरिका का अपमान किया। वह तब आएं जब शांति के लिए तैयार हों।” यह घटना बताती है कि ट्रंप प्रशासन यूक्रेन को एक सौदे के तौर पर देख रहा है, न कि एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में।
पाकिस्तान को सहायता, भारत पर प्रतिबंध: दोहरा चरित्र
अमेरिका का यह रवैया नया नहीं है। इतिहास गवाह है कि उसने पाकिस्तान को बार-बार सैन्य और आर्थिक सहायता दी, जबकि भारत को कई बार प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया और अपनी नौसेना का सातवां बेड़ा बंगाल की खाड़ी में भेजा। अमेरिकी सरकार का कहना था कि इस बेड़े का उद्देश्य युद्ध विराम के बाद पूर्वी पाकिस्तान से पाकिस्तानी सेना को निकालने में मदद करना था। बेड़े का इस्तेमाल भारत को धमकाने और बांग्लादेश की मुक्ति को रोकने के लिए भी किया गया था। इसके जवाब में सोवियत संघ ने बंगाल की खाड़ी में अमेरिकी और ब्रिटिश नौसैनिक उपस्थिति का मुकाबला करने के लिए व्लादिवोस्तोक से एक परमाणु-सशस्त्र फ्लोटिला भेजा। रूसी कदम ने अमेरिकी और ब्रिटिश सेनाओं को युद्ध में आगे हस्तक्षेप करने से रोक दिया। इसका नतीजा बांग्लादेश की आजादी निकला।
इसके अलावा, 1998 में पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए, जबकि पाकिस्तान को उसके परमाणु कार्यक्रम के बावजूद कई बार राहत दी गई। 1999 में कारगिल युद्ध और फिर 2001 में 9/11 के बाद अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत पड़ी, क्योंकि वह अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ युद्ध में अहम भूमिका निभा सकता था। इसलिए अमेरिका ने 2001 में पाकिस्तान पर लगाए गए अधिकतर प्रतिबंध हटा दिए। अमेरिका ने भारत की बजाय पाकिस्तान को अपने सहयोगी के रूप में देखा, क्योंकि वह अफगानिस्तान और मध्य एशिया में उसकी नीतियों को समर्थन दे सकता था।
हाल के वर्षों में भी, अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद पाकिस्तान को फिर से रणनीतिक साझेदार बनाया गया, जबकि भारत के साथ व्यापारिक तनाव और रक्षा सौदों में देरी की खबरें सामने आईं।
यह दोहरा मापदंड ट्रंप-जेलेंस्की विवाद से मिलता-जुलता है। जहां यूक्रेन से अमेरिका अपने निवेश का “हिसाब” मांग रहा है, वहीं पाकिस्तान को दी गई सहायता पर ऐसी कोई शर्तें नहीं दिखतीं। भारत आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अग्रणी रहा है, उसे अमेरिकी नीतियों में अक्सर उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है।
अमेरिका का स्वार्थ: एक वैश्विक पैटर्न
ट्रंप का “अमेरिका फर्स्ट” नारा उनकी विदेश नीति का आधार है। यूक्रेन से खनिज सौदा हो या भारत-पाकिस्तान के साथ रिश्ते, अमेरिका का हर कदम उसके आर्थिक और रणनीतिक हितों से प्रेरित है। यूक्रेन के मामले में, ट्रंप ने साफ कहा कि वह अमेरिकी करदाताओं के 350 अरब डॉलर वापस चाहते हैं, भले ही इसके लिए यूक्रेन को रूस के सामने झुकना पड़े। भारत के साथ भी, रक्षा सौदों और तकनीकी सहयोग में अमेरिका हमेशा अपने लाभ को प्राथमिकता देता है।
पाकिस्तान को दी गई सहायता का इस्तेमाल अक्सर भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों में हुआ, फिर भी अमेरिका ने इस पर आंखें मूंद रखीं। इसका कारण साफ है: अफगानिस्तान और मध्य एशिया में अमेरिका को पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति का लाभ चाहिए था। अब, जब ट्रंप रूस के साथ संबंध सुधारने की बात कर रहे हैं, तो यूक्रेन को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। यह पैटर्न बताता है कि अमेरिका की दोस्ती स्थायी नहीं, बल्कि परिस्थितिजन्य है।
भारत के लिए सबक
ट्रंप-जेलेंस्की विवाद भारत के लिए एक चेतावनी है। अमेरिका पर पूरी तरह निर्भर रहने की बजाय भारत को अपनी रक्षा और आर्थिक नीतियों को आत्मनिर्भर बनाना होगा। रूस से S-400 मिसाइल सौदा हो या क्वाड में सक्रियता, भारत ने संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है। लेकिन अमेरिका की अनिश्चित नीतियां यह सवाल उठाती हैं कि क्या वह वास्तव में भारत का भरोसेमंद साझेदार है?
जेलेंस्की ने ट्रंप से कहा, “हम अकेले नहीं हैं, लेकिन हमें सुरक्षा चाहिए।” भारत को भी अपनी सुरक्षा और संप्रभुता के लिए ऐसा ही दृढ़ रुख अपनाना होगा। अमेरिका की दोस्ती का भरोसा करना जोखिम भरा हो सकता है, क्योंकि उसका इतिहास बताता है कि वह अपने हितों के लिए किसी को भी छोड़ सकता है—चाहे वह यूक्रेन हो, भारत हो या कोई और।
क्यों भारत की विदेश नीति उसकी सबसे बड़ी ढाल है?
भारत की विदेश नीति उसकी सबसे बड़ी ताकत है, क्योंकि यह संतुलन, स्वतंत्रता और रणनीतिक दूरदर्शिता का प्रतीक रही है। ऐतिहासिक संदर्भ में, भारत ने हमेशा अपनी संप्रभुता को प्राथमिकता दी और किसी भी महाशक्ति के आगे झुकने से इनकार किया।
आजादी के बाद, 1950 के दशक में पंडित नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की नींव रखी, जिसने भारत को शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के बीच फंसने से बचाया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में, जब अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ दिया, भारत ने सोवियत संघ के साथ संधि कर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित की। 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद, भारत ने अपनी रक्षा नीति को मजबूत किया और रूस, फ्रांस जैसे देशों के साथ संबंध बनाए रखे।
आज, क्वाड में अमेरिका के साथ साझेदारी और रूस से S-400 सौदा भारत की बहु-आयामी नीति को दर्शाता है। यह लचीलापन भारत को वैश्विक उथल-पुथल में स्थिर रखता है, जैसे कि ट्रंप-जेलेंस्की विवाद जैसे हालिया घटनाक्रमों में। इतिहास साबित करता है कि भारत की विदेश नीति उसका कवच है, जो उसे बाहरी दबावों से बचाती है और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देती है।
लेकिन ट्रंप-जेलेंस्की विवाद ने अमेरिकी विदेश नीति की असलियत को एक बार फिर उजागर किया है। यह नीति सहायता और प्रतिबंधों के खेल से आगे नहीं बढ़ती। पाकिस्तान को मदद और भारत पर प्रतिबंध इसका पुराना उदाहरण है, जबकि यूक्रेन के साथ मौजूदा तनाव इसका नया चेहरा। दुनिया के देशों के लिए यह समझना जरूरी है कि अमेरिका किसी का दोस्त नहीं, बल्कि एक ऐसा खिलाड़ी है जो हमेशा अपने फायदे का पलड़ा भारी रखना चाहता है। भारत को इस खेल में सावधानी से कदम उठाने होंगे, ताकि वह अपनी संप्रभुता और हितों की रक्षा कर सके।