MP में IAS नहीं करेंगे IFS अफसरों के प्रदर्शन का मूल्यांकन, SC ने रद्द किया राज्य सरकार का आदेश

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नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने मध्य प्रदेश सरकार (Madhya Pradesh Government) के उस आदेश को अवमाननापूर्ण बताते हुए रद्द कर दिया है, जिसमें भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Administrative Service- IAS) के अधिकारियों को भारतीय वन सेवा (Indian Forest Service- IFS) के अधिकारियों के प्रदर्शन के मूल्यांकन रिपोर्ट की समीक्षा करने का निर्देश दिया गया था। हालांकि कोर्ट ने यह कहते हुए अवमानना की कार्यवाही शुरू करने से इनकार कर दिया कि हम खुद को ऐसा करने से रोक रहे हैं। सुनवाई के दौरान कोर्ट के रिकॉर्ड में यह बात सामने आई कि मध्य प्रदेश में एक ऐसी प्रथा का पालन किया जाता है जिसमें IFS अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट दर्ज करने के लिए जिला कलेक्टर या वरिष्ठ अधिकारी के रूप में कार्यरत IAS अधिकारी शामिल होते हैं।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला उन याचिकाओं की सुनवाई करते हुए सुनाया, जिनमें राज्य सरकार के आदेश को चुनौती देते हुए अदालत से पूछा गया था कि क्या भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी ही IFS अधिकारियों के लिए रिपोर्टिंग, समीक्षा और स्वीकृति प्राधिकारी हैं। जिसके बाद मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने इन याचिकाओं पर सुनवाई की। शीर्ष अदालत ने कहा कि 29 जून, 2024 का सरकारी आदेश कोर्ट के निर्देशों का पूरी तरह उल्लंघन है, जिसमें उसका 22 सितंबर, 2000 का आदेश भी शामिल है।

मुख्य न्यायाधीश गवई द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया, ‘हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि विवादित सरकारी आदेश की प्रकृति अवमाननापूर्ण है, क्योंकि यह सरकारी आदेश इस न्यायालय के 22 सितंबर, 2000 के पूर्वोक्त आदेशों का उल्लंघन करता है और इस न्यायालय से स्पष्टीकरण/संशोधन मांगे बिना ही जारी किया गया है।’

22 सितंबर सन् 2000 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि वन विभाग में अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक के पद तक के अधिकारियों के लिए रिपोर्टिंग प्राधिकारी तत्काल वरिष्ठ अधिकारी होना चाहिए। शीर्ष न्यायालय ने कहा कि केवल प्रधान मुख्य वन संरक्षक के मामले में ही रिपोर्टिंग प्राधिकारी वन सेवा से संबंधित व्यक्ति के अलावा कोई अन्य व्यक्ति होगा, क्योंकि IFS में उनसे वरिष्ठ कोई नहीं है।

बुधवार को फैसला सुनाते हुए पीठ ने कहा कि मध्य प्रदेश को छोड़कर, अन्य सभी राज्य सितंबर 2000 के आदेश में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी निर्देशों का ईमानदारी से पालन कर रहे हैं। पीठ ने कहा कि वह इस तरह के सरकारी आदेश जारी करने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ अवमानना ​​कार्यवाही शुरू कर सकती थी, लेकिन हम ऐसा करने से खुद को रोकते हैं।’ साथ ही अदालत ने कहा कि ‘उक्त सरकारी आदेश इस न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन है, अतः इसे निरस्त किया जाना चाहिए।’

इसके बाद शीर्ष अदालत ने उस सरकारी आदेश को रद्द कर दिया और मध्य प्रदेश सरकार को सितंबर 2000 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी निर्देशों का सख्ती से पालन करते हुए एक महीने के भीतर नियमों को फिर से तैयार करने का निर्देश दिया। पीठ ने बताया कि मध्य प्रदेश द्वारा अपनाई गई प्रथा सही नहीं थी।

सुनवाई के दौरान अदालत ने टिप्पणी करते हुए कहा कि ‘ऐसा लग रहा है कि, जबकि अन्य राज्य इस प्रथा का पालन कर रहे थे, जिसमें ‘रिपोर्टिंग प्राधिकारी’ और ‘समीक्षा प्राधिकारी’ एक ही बैकग्राउंड के होते थे, जिसमें ‘रिपोर्टिंग अथॉरिटी’ उस अधिकारी से ठीक वरिष्ठ होता था, जिसके बारे में रिपोर्ट की जा रही होती थी, और ‘समीक्षा अथॉरिटी’ ‘रिपोर्टिंग प्राधिकारी’ के प्रदर्शन की निगरानी करने वाला अथॉरिटी होता था, वहीं मध्य प्रदेश राज्य इस स्थापित प्रथा का पालन नहीं कर रहा था।’

अदालत ने अपने फैसले में कहा कि कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग ने सितंबर 2004 में स्पष्ट किया था कि शीर्ष अदालत का सितंबर 2000 का आदेश वन विभाग के भीतर काम करने वाले वन अधिकारियों पर लागू था और विभाग के बाहर काम करने वाले वन अधिकारियों पर लागू नहीं था।

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