अब उत्तराखंड भी होगा मालामाल: पहाड़ की किस्मत बदल देगा ये पौधा!
- हर साल कई सौ करोड़ कमा रहा पड़ोसी देश
उत्तराखंड में कृषि विभाग किसानों की आय में इजाफे के लिए कई योजनाएं चला रहा है। भले ही उत्तराखंड की भागौलिक परिस्थितियां इसमें बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रही हैं। इसके बावजूद कृषि विभाग एरोमेटिक प्लांट्स के जरिए कुछ विशेष उत्पादों पर फोकस कर रहा है। ये वे उत्पाद हैं जो आने वाले समय में किसानों के लिए वरदान साबित होने वाले माने जा रहे हैं। ऐसा ही पहाड़ का एक पारंपरिक उत्पाद है टिमरू…
टिमरू में नेपाल आगे:
उत्तराखंड के पहाड़ों में पारंपरिक रूप से पाया जाने वाला टिमरू का पौधा, उचित स्थितियां होने के बावजूद भले ही उत्तराखंड में पहचान नहीं बना पाया। लेकिन उत्तराखंड से सटा पड़ोसी देश नेपाल टिमरू के लिए ग्लोबल हब के रूप में जाना जाता है।
यहां आपको ये जानकर भी आश्चर्य होगा कि वर्तमान में हर साल नेपाल से करीब 100 करोड़ रुपए का टिमरू उत्तराखंड भी इंपोर्ट करता है। इन्हीं सब स्थितियों को देखते हुए यहां का कृषि विभाग अब टिमरू के उत्पादन पर ज्यादा फोक्स कर रहा है।
सेंटर फॉर एरोमेटिक प्लांट्स से मिली जानकारी के अनुसार इस समय नेपाल दुनिया सबसे ज्यादा टिमरू का एक्सपोर्ट कर रहा है। और तो और अब उत्तराखंड के पहाड़ों में पारंपरिक रूप से पाए जाने वाले टिमरू (व्यवसायिक टिमरू और बीज) पर तक उत्तराखंड को सालाना 100 करोड़ खर्च कर इसे नेपाल से मंगाना पड़ता है।
उत्तराखंड की परंपराओं में सदियों से टिमरू:
पहाड़ों के बुजुर्गों के अनुसार टिमरू उत्तराखंड की परंपराओं में सदियों से है। पहाड़ में आज भी पूजा के लिए घरों के बाहर टिमरू के डंडे नुमा तने को लगाया जाता है, और इसे काफी शुभ माना जाता है। कई जानकारों का कहना है कि इसके पीछे एक बड़ा वैज्ञानिक कारण भी है, उनक अनुसार कहा जाता है कि जहां पर टिमरू होता है, वहां आसपास में सांप और बिच्छू नहीं आते हैं।
टिमरू का औषधीय गुण:
टिमरू का इस्तेमाल केवल पूजा में ही नहीं होता, जानकारों के अनुसार इसमें अनेक औषधीय गुण भी होते हैं। इसी कारण टिमरू को दातुन के तौर पर भी इस्तेमाल किया जाता है। पहाड़ों के बुजुर्ग बताते हैं कि पहले टूथपेस्ट की जगह दांतों को साफ करने के लिए टिमरू की टहनी या फिर उसके बीज का इस्तेमाल किया जाता था।
पहाड़ों में आज भी कई बुजुर्ग टिमरू की दातुन का प्रयोग करते हैं, लेकिन आज तक यहां टिमरू के व्यावसायिक इस्तेमाल (Commercial Use) पर ध्यान नहीं दिया गया। भले ही अब उत्तराखंड ने भी पड़ोसी देश नेपाल को देखकर कुछ हद तक टिमरू को इकोनॉमिक क्रॉप के रूप में देखना शुरु कर दिया है।
टिमरू से इत्र और परफ्यूम:
इसी सब के बीच उत्तराखंड सरकार की ओर से टिमरू मिशन की शुरुआत कर दी गई है। जिसके बाद सेंटर फॉर एरोमेटिक प्लांट्स में पहली बार टिमरू से इत्र और परफ्यूम बनाया गया, जो लोगों ने काफी पंसद भी आया। यहां तक की ग्लोबल इन्वेस्टर समिट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसकी तारीफ की थी।
इन्हीं सब स्थितियों को देखते हुए उत्तराखंड सरकार ने टिमरू मिशन की शुरुआत की है, जिसके तहत टिमरू पर रिसर्ज सेंटर को पिथौरागढ़ जिले में शुरु किया जा रहा है। इसके साथ ही नहीं पिथौरागढ़ में 4000 हेक्टेयर जमीन पर टिमरू वैली की भी स्थापना की जा रही है।
हर तरह से मुनाफे का सौदा है टिमरू :
सेंटर फॉर एरोमेटिक प्लांट्स से जुड़े जानकारो का कहना है कि यदि उत्तराखंड में टिमरू की खेती पर फोकस किया जाए तो यह बड़े मुनाफे का सौदा साबित होगा। इसका कारण यह है कि टिमरू को जंगली जानवरों से कोई नुकसान नहीं है, जो पहाड़ में खेती के लिए सबसे बड़ी समस्या है। इसके अलावा टिमरू की और खासियत ये भी है कि ये पेड़ कार्बन का उत्सर्जन बहुत कम और कार्बन का अवशोषित काफी ज्यादा करता है। ऐसे में टिमरू पर्यावरण के लिए काफी अच्छा साबित होगा। टिमरू की एक अन्य खासियत ये भी है, कि इस पौधे को लगाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती है।
टिमरू का इस्तेमाल: परफ्यूम, कॉस्मेटिक से लेकर दवाइयों तक
जानकारों के अनुसार टिमरू में इस्तेमाल कॉस्मेटिक के कई प्रोजेक्ट्स में तो किया ही जाता है, साथ ही ये एक कार्बनिक एरोमेटिक प्लांट (जैविक सुगंधित पौधा) हैं। ऐसे में शोधकर्ताओं का तो यहां तक कहना है कि टिमरू से बने इत्र और परफ्यूम अन्य ब्रांडेड कंपनियों के परफ्यूम टक्कर दे रहे हैं। इसके साथ ही टिमरू से निकलने वाला एसेंशियल ऑयल का इस्तेमाल दवाइयों आदि में भी किया जाता है। साथ ही टिमरू के पाउडर से कीटनाशक दवाइयां भी बनाई जाती है, जो पूरी तरह से केमिकल फ्री होती हैं।
“मौंड”: पहाड़ का एक पूरा त्यौहार टिमरू पर निर्भर-
हर साल टिहरी गढ़वाल की यमुना घाटी में होने वाला मुंड मेला पारंपरिक रूप से टिमरू पर निर्भर है। ध्यान रहे कि पारंपरिक तरीके से गांव में लोग टिमरू की पट्टी और उसके तनों को सुखाकर उसका पाउडर बनाते थे। फिर उस पाउडर का इस्तेमाल नदी में मछली पकड़ने के लिए करते।
दरअसल टिमरू से तैयार होने वाले इस पाउडर की खास विशेषता यह है कि इसे नदी में डालने पर मछलियां थोड़ी देर के लिए बेहोश हो जाती हैं, लेकिन इसका मछलियों पर व उनकी सेहत पर के अलावा नदी में रहने वाले किसी भी अन्य जीव-जन्तु पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है। थोड़ी देर के लिए मछलियों पर होने वाले इसके प्रभाव के चलते मछली पकड़ने का जो रोमांच बनता है उसी रोमांच को “मौंड” मेला का नाम दिया जाता है।